काल चक्र
जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
अवसर्पिणी काल में समयावधि, हर वस्तु का मान, आयु, बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि, हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। ऊपर जो 24 तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है।
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