स्यादवाद
स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।
अनेकांत को व्यक्त करने वाली भाषा-अभिव्यक्ति के माध्यम का नाम है- स्याद्वाद।
स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकांतात्मक है, इसलिए स्याद्वाद को अनेकांतवाद भी कहते हैं (अनेकांतात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः)।
अनंतधर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों का ज्ञान केवल मुक्त व्यक्ति (केवली) ही केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्त कर सकता है।
साधारण मानव किसी वस्तु का एक समय में एक ही धर्म जान सकता है, इसलिए उसका ज्ञान अपूर्ण और आंशिक होता है।
वस्तु के आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ‘नय’ कहते हैं।
जैन दर्शन में प्रत्येक नय के प्रारंभ में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का निर्देश दिया गया है। ‘स्यात्’ शब्द से यह पता चलता है कि उसके साथ प्रयुक्त ‘नय’ की सत्यता किसी दृष्टि-विशेष पर निर्भर करती है। यही स्याद्वाद का सिद्धांत है।
स्याद्वाद वस्तु या पदार्थ के दूसरे धर्म या लक्षणों का प्रतिरोध किये बिना धर्म-विशेष/लक्षण-विशेष का प्रतिपादन करता है। स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। अनेकांतवाद व्यापक विचार-दृष्टि है, स्याद्वाद उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम है।
जैन दर्शन के अनुसार दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण प्रत्येक नय (परामर्श) को सात विभिन्न स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है- स्यात् है (स्यात् अस्ति); स्यात् नहीं है (स्यात् नास्ति); स्यात् है और नहीं है (स्यात् अस्ति च नास्ति च); स्यात् कहा नहीं जा सकता (स्यात् अव्यक्तव्यम्); स्यात् है और कहा नहीं जा सकता (स्यात् अस्ति च अव्यक्तव्यम् च); स्यात् नहीं है और कहा नहीं जा सकता (स्यात् नास्ति च अव्यक्तव्यम् च); स्यात् है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता (स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च)।
सात नयों से ही वस्तु की सही व्याख्या होती है क्योंकि ये सात वस्तुनिष्ठ धर्म- सत्, असत, उभय, अव्यक्तव्यत्व, सत्व्यक्तव्यत्व, असत्व्यक्तव्यत्व, और सत्वासत्वाव्यक्तव्यत्व वस्तु में स्वभावतः हैं और स्वभाव में तर्क नहीं होता।
जैन दर्शन के अनुसार एक दृष्टि से जो नित्य प्रतीत होता है, वही दूसरी दृष्टि से अनित्य है।
स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है और कथन का अहिंसावादी माध्यम है।
नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता आदि परस्पर विरोधी धर्म हैं, किंतु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं। वस्तु दोनों को आश्रय देती है, दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है।
पाणिनीय व्याकरण के सूत्र पर काशिका और महाभाष्य लिखनेवाले क्रमशः कैयट तथा पतंजलि के अनुसार ‘जो परलोक, कर्मफल को मानता है, वह आस्तिक है और जो उसे नहीं मानता, वह नास्तिक है।’
जैन और बौद्ध आस्तिक दर्शन हैं, क्योंकि इन दोनों दर्शनों में स्पष्ट रूप से परलोक, पुनर्जन्म और उसके जनक शुभ-अशुभ कर्मों को स्वीकार किया गया है।
Source
https://t.me/JainTerapanth/5390
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