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Showing posts from July, 2020

​​​​Why does water gets cooled in Earthen Pot?

​​​​Why does water gets cooled in Earthen Pot? Water inside earthen pot rises to surface of pot by capillary action through tiny pores on the pot. Now this water at surface comes in contact with the hot surrounding air and evaporates (as Dry Bulb Temperature of Air is high, in simple terms air is hot and dry). Now whenever a Substance evaporates, it needs energy (Latent Heat of Vaporization), Here this energy comes in the form of heat (Sensible heat) from remaining water inside pot. In a simplified way, The Surrounding air is Hot and dry hence it absorbs water at the surface of earthen pot in the form of vapor. For conversion of water in vapor energy is required, which is absorbed from water inside the pot, resulting in decreasing its temperature. Or in short, when anything evaporates on the surface, the surface gets colder. This answers another question, Why does our hands feel colder after applying hand Sanitizers.

​​What is the difference between A1 and A2 milk?

​​What is the difference between A1 and A2 milk? In the proteins found in milk, a protein called beta-casein makes up 30%. Beta-casein is of two kinds : A-1 Beta-casein and A2 Beta-casein. Regular milk mostly contains A-1 protein which may cause uneasiness and according to some studies, can increase the risk to many diseases. A-2 protein milk is gentle on sensitive tummies and less likely to trigger symptoms associated with milk intolerance. A-2 protein is similar in structure to human milk which is why it’s naturally more digestible than A-1 milk. Research shows that A-1 protein milk causes many digestive issues. Moreover, A-2 milk is high in Omega 3 & 6, Vitamins, Calcium, Minerals, Iodine, Magnesium, antioxidant Beta-Carotene and many more. A-2 milk has shown to have medicinal benefits. It is particularly essential during pregnancy and childhood. Research shows that milk from special breed cows with a different kind of protein called A-2 is not only nutritious but also easier to

गणधरों के नाम, गोत्र और निवासस्थान

भगवान् महावीर ने पावा में सर्वप्रथम गौतम इंद्रभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणों को निर्ग्रन्थ-धर्म में दीक्षित किया जो उनके सर्वप्रथम अनुयायी थे। भगवान् महावीर ने अपने सारे अनुयायियों को ग्यारह गणों (समूहों) में विभक्त किया और प्रत्येक गण (समूह) का गणधर इन्हीं ग्यारह ब्राह्मणों को बनाया।  इन गणधरों के नाम, गोत्र और निवासस्थान इस प्रकार हैं:-  1. इंद्रभुति गौतम (गोर्वरग्राम) 2. अग्निभूति गौतम (गोर्वरग्राम) 3. वायुभूति गौतम (गोर्वरग्राम) 4. व्यक्त भारद्वाज कोल्लक (सन्निवेश) 5. सुधर्म अग्निवेश्यायन कोल्लक (सन्निवेश) 6. मंडिकपुत्र वाशिष्ठ मौर्य (सन्निवेश) 7. भौमपुत्र कासव मौर्य (सन्निवेश) 8. अकंपित गौतम (मिथिला) 9. अचलभ्राता हरिभाण (कोसल) 10. मेतार्य कौंडिन्य तुंगिक (सन्निवेश) 11. प्रभास कौंडिन्य (राजगृह) गणों में से एक सुधर्मा भगवान् महावीर भगवान् के बाद जैनसंघ के प्रधान हुये।  इंद्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर शेष सभी का निर्वाण भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही हो गया था। भगवान् महावीर ने संघ और निर्वाण का द्वार सभी वर्गों के लिए खोल दिया तथा स्त्रियों को भी पुरुषों के समान संघ में पूर्ण अधिकार प्

जैन धर्म के कुछ अंश

पाँच-महाव्रत  1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय  4.अपरिग्रह 5. ब्रह्मचर्य पार्श्वनाथ भगवान के चार महाव्रत थे।  1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय  4.अपरिग्रह महावीर भगवान ने पाँचवा महाव्रत 'ब्रह्मचर्य' के रूप में स्वीकारा। ******************* जैन धर्म में पञ्चास्तिकायसार, समयसार और प्रवचनसार को 'नाटकत्रयी' कहा जाता है। जैन मतानुसार में 3 प्रमाण हैं- 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान  3. आगम ***************** जैन धर्म में आत्मशुद्धि पर बल दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये जैन धर्म में देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीर नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अंतरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। ******************* जैन धर्म में जातिभेद को स्वीकार नहीं किया गया। प्राचीन जैन ग्रंथों में कहा गया है कि सच्चा ब्राह्मण वही है जिसने राग, द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है और जो अपनी इंद्रियों पर निग्रह रखता है। जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है, किसी जात

काल चक्र

काल चक्र जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी अवसर्पिणी काल में समयावधि, हर वस्तु का मान, आयु, बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि, हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। ऊपर जो 24 तीर्थंकर गिनाए गए हैं वे वर्तमान अवसर्पिणी के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी में नए नए जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं। इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर लोग द्वादश अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते है। Source https://t.me/JainTerapanth/5432

णमोकार महामंत्र

णमोकार महामंत्र एक लोकोत्तर मंत्र है। इस मंत्र को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, किंतु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन, स्मरण, चिंतन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंत्र है। लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं, किंतु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए णमोकार मंत्र सर्वकार्य सिद्धिकारक लोकोत्तर मंत्र माना जाता है। णमोकार महामंत्र को जैन धर्म में सबसे प्रभावशाली माना जाता है। ये पाँच परमेष्ठी हैं। इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध भावपूर्वक किया गया यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने वाला है। संसार में सबसे उत्तम मंगल है। इस मंत्र के प्रथम पाँच पदों में 35 अक्षर और शेष दो पदों में 33 अक्षर हैं। इस तरह कुल 68 अक्षरों का यह महामंत्र समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मंत्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। णमोकार-स्मरण से अनेक लोगों के रोग, दरिद्रता, भय, विपत्तियाँ दूर होने की अनुभव सिद

जैन धर्म अर्थात जिन भगवान्‌ का धर्म।

जिन परम्परा का अर्थ है - जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन। जो जिन के अनुयायी हों उन्हें जैन कहते हैं। जिन शब्द बना है संस्कृत के जि धातु से। जि माने - जीतना। जिन माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन-मन-वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है। जैन धर्म अर्थात जिन भगवान्‌ का धर्म। जैन दर्शन इस संसार को किसी ईश्वर द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है, अपितु शाश्वत मानता है। जन्म मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता नहीं है। जीव जैसे कर्म करता है, उन के परिणाम स्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने के लिए वह मनुष्य, नरक, देव, एवं तिर्यंच (जानवर) योनियों में जन्म मरण करता रहता है। जैन धर्म के अनुसार सृष्टिकर्ता कोई ईश्वर नहीं हैं, किंतु संसार वास्तविक तथ्य है जो अनादिकाल से विद्यमान है। यह लोक छः द्रव्यों - जीव (चेतन), पुद्गल (भौतिक तत्त्व) धर्म, अधर्म आकाश एवं काल से निर्मित है। जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव तत्त्व हैं। सभी द्रव्य तत्त्वतः अविन

स्यादवाद

स्यादवाद स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन। अनेकांत को व्यक्त करने वाली भाषा-अभिव्यक्ति के माध्यम का नाम है- स्याद्वाद। स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकांतात्मक है, इसलिए स्याद्वाद को अनेकांतवाद भी कहते हैं (अनेकांतात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः)। अनंतधर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों का ज्ञान केवल मुक्त व्यक्ति (केवली) ही केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्त कर सकता है। साधारण मानव किसी वस्तु का एक समय में एक ही धर्म जान सकता है, इसलिए उसका ज्ञान अपूर्ण और आंशिक होता है। वस्तु के आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ‘नय’ कहते हैं। जैन दर्शन में प्रत्येक नय के प्रारंभ में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का निर्देश दिया गया है। ‘स्यात्’ शब्द से यह पता चलता है कि उसके साथ प्रयुक्त ‘नय’ की सत्यता किसी दृष्टि-विशेष पर निर्भर करती है। यही स्याद्वाद का सिद्धांत है। स्याद्वाद वस्तु या पदार्थ के दूसरे धर्म या लक्षणों का प्रतिरोध किये बिना धर्म-विशेष/लक्षण-विशेष का प्रतिपादन करता है। स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। अनेकांतवाद व्यापक विचार-दृष्टि

जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है अनेकान्तवाद।

अनेकान्तवाद अनेकान्त का अर्थ है- किसी भी विचार या वस्तु को अलग अलग दष्टिकोण से देखना, समझना, परखना और सम्यक भेद द्धारा सर्व हितकारी विचार या वस्तु को मानना ही अंनेकात है। अनेकान्तवाद जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिंदु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकांतवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धांत को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति', स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य,' 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ। Source h

जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म

जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयुष्य नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह भगवान बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। Source https://t.me/JainTerapanth/5380

जैनधर्म का पहला महत्वपूर्ण सिद्धांत है अहिंसा

जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेंद्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है। Source https://t.me/JainTerapanth/5368