प्रस्तुति: अर्चना झा
जिंदगी का आनंद मौजूद संसाधनों में ही पूर्णता के साथ जीने में है, उसे ज्यादा करने में नहीं। अक्सर देखने में आता है कि संसाधनों को बढ़ाने पर भी मनोनुकूल सफलता नहीं मिलती है तो हीनता महसूस होने लगती है और हीनता की स्थिति में व्यक्ति हमेशा दुखी रहता है। शाब्दिक तौर पर देखें तो हीन का अर्थ अभाव या कमी है, और हीनता वह अहसास है जो अपने अंदर कमी खोजने पर मजबूर कर देता है। जब हम मानने लगते हैं कि हमारे अंदर अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ कमियां हैं, मसलन हम औरों की तरह सुंदर नहीं हैं या फिर हमारा घर, नौकरी फलां जितना शानदार नहीं है, तब हमारे अंदर हीन भावना की ग्रंथियां पनपने लगती हैं, हमारा मन संकुचित होने लगता है और हम प्रयास करना छोड़ देते हैं। प्रकृति को ही देख लीजिए, बंजर जमीन को छोड़ देते हैं तो उस पर कंटीली झाड़ियां उग आती हैं।
हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति अपनी निष्क्रियता का दोष सब पर मढ़ने लगता है, सिवाय स्वयं के। यह सोच-सोच कर वह जीवन से नाराज रहने लगता है। हीनता की शुरुआत तुलना के धरातल पर होती है। जब आप अपनी संतान की तुलना किसी अन्य बच्चे से करते हुए उससे कहते हैं कि ‘तुम्हारे अंक अन्य बच्चे की अपेक्षा कम हैं। तुम उसके जितना होशियार नहीं हो।’ तो यह नहीं समझते कि ऐसा कहने से बालमन पर आघात होता है और उसके अंदर हीनता की ग्रंथियों का बीजारोपण होने लगता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसकी तुलनाएं भी बढ़ने लगती हैं और उसी अनुपात में उसकी हीनता भी उसके आत्मविश्वास और सामर्थ्य में सेंध लगाने लगती है। बच्चा वयस्क होने पर मानने लगता है कि उसकी काबिलियत वाकई कम है। इन हीन ग्रंथियों की अभिव्यक्ति उसके व्यक्तित्व में अतिसंवेदनशीलता, भावुकता, निष्क्रियता जैसे विकारों के रूप में झलकने लगती है।
अतिसंवेदनशीलता और भावुकता का अर्थ है कि व्यक्ति डरा हुआ है। वह अपनी लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने की नहीं सोच सकता क्योंकि उसे लगता है कि बड़े सपने देखना, उन्हें पाने की कोशिश करना उसकी सीमा से बाहर की बात है। हीन ग्रंथियों ने उसे सहमा दिया है और वह संकोची हो गया है।
इसे समझने के लिए एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि किसी सार्वजनिक मीटिंग में एक व्यक्ति जाता है। वह चुपचाप जाकर बैठ जाता है और वह उन्हीं से वार्ता करता है जो उसके करीबी हैं। नए व्यक्ति से मिलने का उसमें साहस नहीं है। छोटी सी गलती पर वह स्पष्टीकरण देने की कोशिश करता है। जाहिर सी बात है कि उसमें आत्मविश्वास की कमी है, जो हीनता का परिचायक है।
किसी तराजू में एक पलड़े पर सामान और दूसरे पर वजन रखते हैं, उसी प्रकार जीवन में तराजू के दो पलड़े हैं- हीन भावना और सामर्थ्य शक्ति। आपको सिर्फ इतना करना है कि सामर्थ्य शक्ति को ज्यादा मजबूत करना है, उस पर ध्यान केंद्रित करना है, इसे प्रतिपक्ष भावना कहते हैं। जब आपका ध्यान अपनी सामर्थ्य शक्ति पर होगा, आप अपने भीतर उत्साह के नए स्रोत खोजने में समर्थ हो जाएंगे। साफ है कि प्रतिपक्ष की भावना विकसित करने से हीनता पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
Courtesy
www.speakingtree.nbt.in
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