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स्यादवाद

स्यादवाद स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन। अनेकांत को व्यक्त करने वाली भाषा-अभिव्यक्ति के माध्यम का नाम है- स्याद्वाद। स्याद्वाद से जिस पदार्थ का कथन होता है वह अनेकांतात्मक है, इसलिए स्याद्वाद को अनेकांतवाद भी कहते हैं (अनेकांतात्मकार्थ कथनं स्याद्वादः)। अनंतधर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों का ज्ञान केवल मुक्त व्यक्ति (केवली) ही केवल ज्ञान के द्वारा प्राप्त कर सकता है। साधारण मानव किसी वस्तु का एक समय में एक ही धर्म जान सकता है, इसलिए उसका ज्ञान अपूर्ण और आंशिक होता है। वस्तु के आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ‘नय’ कहते हैं। जैन दर्शन में प्रत्येक नय के प्रारंभ में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का निर्देश दिया गया है। ‘स्यात्’ शब्द से यह पता चलता है कि उसके साथ प्रयुक्त ‘नय’ की सत्यता किसी दृष्टि-विशेष पर निर्भर करती है। यही स्याद्वाद का सिद्धांत है। स्याद्वाद वस्तु या पदार्थ के दूसरे धर्म या लक्षणों का प्रतिरोध किये बिना धर्म-विशेष/लक्षण-विशेष का प्रतिपादन करता है। स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। अनेकांतवाद व्यापक विचार-दृष्टि ...

जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है अनेकान्तवाद।

अनेकान्तवाद अनेकान्त का अर्थ है- किसी भी विचार या वस्तु को अलग अलग दष्टिकोण से देखना, समझना, परखना और सम्यक भेद द्धारा सर्व हितकारी विचार या वस्तु को मानना ही अंनेकात है। अनेकान्तवाद जैनधर्म का तीसरा मुख्य सिद्धांत है। इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए। राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिंदु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मत या सिद्धांत को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उद्भूत हुआ है, अतएव प्रत्येक मत में अपनी अपनी विशेषताएँ हैं। अनेकांतवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धांत को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा स्यात् अस्ति', 'स्यात् नास्ति', स्यात् अस्ति नास्ति', 'स्यात् अवक्तव्य,' 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' और 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य', इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ। Source h...

जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म

जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैनधर्म में ईश्वर को जगत् का कर्त्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयुष्य नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह भगवान बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। Source https://t.me/JainTerapanth/5380

जैनधर्म का पहला महत्वपूर्ण सिद्धांत है अहिंसा

जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवन है, अतएव पृथ्वी आदि एकेंद्रिय जीवों की हिंसा का भी इस धर्म में निषेध है। Source https://t.me/JainTerapanth/5368